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विश्व चॉकलेट दिवस आज : झीलों-पहाड़ों, हरियाली और दाल-बाटी-चूरमा की लज्जत के साथ चॉकलेटी उदयपुर

झीलों-पहाड़ों की खूबसूरती और दाल-बाटी-चूरमा की लज्जत वाला यह कितना चॉकलेटी है, इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि यहां रोज करीब 10 क्विंटल चॉकलेट बनता और लगभग इतना ही 1000 किलो खाया जाता है। बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक सबके चेहरों पर मुस्कान लाने वाला चॉकलेट त्योहार, बर्थ डे, वेडिंग एनिवर्सरी, फाउंडेशन डे से लेकर टारगेट अचीमेंट पार्टियों तक जा पहुंचा है।

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इतना ही नहीं, यह अनूठी मिठास केक और गिफ्ट से लेकर शेक और मिठाइयों तक इस शहर की जिंदगी का हिस्सा बन चुकी है। दिलचस्प ये भी है कि अब इस शहर के प्रोडक्शन हाउस चॉकलेट को अलग-अलग अंदाज में पेश भी कर रहे हैं। इनमें सबसे खास है प्रोटीन चॉकलेट, जिसमें चॉकलेट का मजा तो है ही, सेहत भी भरपूर है। वर्ल्ड चॉकलेट डे 7 जुलाई यानी शुक्रवार को है।

शहर में 150 से ज्यादा बेकरी, 60 में चॉकलेट प्रोडक्शन, हरेक में कम से कम 15 किलो
लेकसिटी में 150 से ज्यादा बेकरियां हैं। इनमें तरह-तरह की चॉकलेट मिलती हैं और चॉकलेट केक भी। बेकरी एसोसिएशन के अध्यक्ष मुकेश माधवानी बताते हैं कि शहर में 50 से 60 जगह पर चॉकलेट उत्पाद होता है। इनमें से हरेक में 15-16 किलोग्राम चॉकलेट बनाई जाती है। इसकी कीमत 1 रुपए से 10 हजार रुपए तक है। इसके अलावा होम मेड चॉकलेट उत्पाद भी बड़ी मात्रा में बनते हैं।

फिल्म प्रोडक्शन से जुड़े माधवानी ने वाकया शेयर किया, जब वे एक एयरपोर्ट पर सदी के महान अभिनेता अभिताभ बच्चन को रिसीव करने पहुंचे थे। स्वागत करने वालों में और भी बहुत से लोग थे, जिनके हाथों में फूल और बुके थे। अकेले माधवानी ऐसे थे, जो चॉकलेट लेकर गए 0थे। उन्होंने बिग बी को चॉकलेट ऑफर करते हुए कहा- सर! कुछ मीठा हो जाए। सुनते ही अमिताभ के चेहरे पर मुस्कान तैर गई। बता दें, अमिताभ खुद एक चॉकलेट ब्रांड को एंडोर्स करते हैं।

स्वाद भी, सेहत भी : जिम-योगा फ्रीक्स के लिए प्रोटीन चॉकलेट
डॉक्टर कहते हैं कि चॉकलेट के फायदे अपनी जगह हैं, लेकिन इसकी अति नुकसान दायक है। सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के मुताबिक चॉकलेट वाले केक, आइसक्रीम, शेक अगर रुटीन का हिस्सा हैं तो यह आपको हाई कोलेस्ट्रॉल की ओर ले जाता है। चॉकलेट में मिला शुगर और सेचुरेटेड फैट सेहत के लिए सबसे खतरनाक होता है। इससे मोटापा बढ़ता है। आप कार्डियक अरेस्ट के शिकार भी हो सकते हैं। इधर, शहर के बाजार ने प्रोटीन चॉकलेट के रूप में इसका विकल्प निकाला है। यानी हेल्थ कॉन्शियस लोग खास कर जिम और योगा फ्रीक्स भी इसका मजा ले सकते हैं।

* साल 2018 में रिव्यूज इन कार्डियोवास्कुलर मेडिसिन ने रिपोर्ट प्रकाशित की। इसके मुताबिक रोज थोड़ा-थोड़ा डार्क चॉकलेट खाना लिपिड पैनल को दुरुस्त रखता है। इससे ब्लड प्रेशर भी सही रहता है।
* साल 2017 में जर्नल ऑफ द अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन ने रिसर्च में पाया कि रोज थोड़ा-थोड़ा डार्क चॉकलेट बादाम के साथ खाने की आदत लिपिड प्रोफाइल को बेहतर बनाती। दिल भी फिट रहता है।
* मासिक धर्म (पीरियड्स) के वक्त कई युवतियां-महिलाएं असहनीय दर्द से गुजरती हैं। उन्हें थोड़ा-थोड़ा डार्क या मिल्क चॉकलेट दें तो आराम मिलेगा। साल 2020 में न्यूट्रीएंट्स पर प्रकाशित एक रिपोर्ट कहती है कि 50 ग्राम डार्क चॉकलेट में 114 मिलीग्राम, जबकि 50 ग्राम व्हाइट चॉकलेट में 31 मिलीग्राम मैग्नीशियम होता है। मैग्नीशियम मसल्स को रिलेक्स करता है, इसलिए पीरियड्स के दौरान इसे खाने पर महिलाओं को दर्द में उन्हें राहत महसूस होती है।

रोचक : चॉकलेट कड़वा-कसैला, यूरोप ने बनाया मीठा
विश्व चॉकलेट दिवस की शुरुआत 7 जुलाई, 1550 को यूरोप में हुई थी। फ्रांस ने 1995 में यह शुरुआत की। हालांकि चॉकलेट का आस्तित्व 2000 साल से भी पुराना माना जाता है। अफ्रीकी देश घाना कोको का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, जहां 14 फरवरी को चॉकलेट डे मनाते हैं। माना जाता है कि चॉकलेट प्लांट सबसे पहले अमेरिका में देखा गया था और इसकी फलियों में लगे बीज से ही चॉकलेट की खोज हुई थी।

यह 1528 का दौर था, जब अमेरिका के मेक्सिको पर स्पेन का कब्जा था। तब कोको के पेड़ों को मेक्सिको से स्पेन ले आए थे। वहां के लोगों को यह इतना अच्छा लगा कि उन्होंने इसे अपना पसंदीदा ड्रिंक बना लिया। हालांकि यह चॉकलेट का शुरुआती दौर था। लोगों को इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी, इसलिए उन्हें इसका स्वाद कसैला और थोड़ा तीखा लगता था। फिर यह कसैलापन पन को दूर करने के लिए कई उपाय किए गए। इसे मीठा बनाने का श्रेय यूरोप को है।

भारत और चॉकलेट : भारत में चॉकलेट की खपत काफी ज्यादा है। दूध और कोको की पैदावार लगातार बढ़ने के कारण चॉकलेट उद्योग रफ्तार से बढ़ रहा है। भारत सऊदी अरब, सिंगापुर, नेपाल, हांगकांग और यूएई तक चॉकलेट भेज रहा है। हमारे यहां कोको की फसल को बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दौर में लाया गया था और व्यवसायिक तौर पर इसकी खेती 1960 के दशक से होती आ रही है।

 

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