कठपुतली कला ऐसी हैं जिसके बारे में यह कह सके कि यह इतनी पुरानी है लेकिन यह जरूर है कि कठपुतली हजारों वर्षो से चली आ रही है ऐसी परम्परा है जिसकी उत्पति राजस्थान से हुई है। कठपुतली का राजस्थान की लोक कथाओं, लोक गीतों में जिक्र मिलता है। राजस्थान की जनजातियाँ प्राचीन काल से इस कला का प्रदर्शन करती आ रही हैं और यह राजस्थानी संस्कृति का एक शाश्वत हिस्सा बन गई हैं विविधता और परंपरा।
कठपुतली के बिना राजस्थान में कोई भी ग्रामीण मेला, धार्मिक उत्सव या फिर सामाजिक मेलजोल पूरा नहीं हो सकता हैं। वैसे ही उदयपुर के लोक कला मंडल में ऐसी कोई शाम नहीं गुजरती जब कठपुतलियों का कोई कार्यक्रम नही होता हो। लोक कला मंडल में हर शाम कठपुतलियों की प्रस्तुति होती है, आज भी हजारों साल पुरानी कला को जीवंत रखे हुए हैं।
इन कठपुतलियों को आकार देने का काम भगवती माली और मोहन लाल डांगी कर रहे हैं। 30 वर्ष पहले जब वे लोक कला मंडल आए थे तो उनमें कठपुतली बनाने की कला में रुचि पैदा हुई, तभी से उन्होंने यहाँ कठपुतली बनाने की कला सीखनी शुरू की, जो की उनके अनुसार वो अब तक सिख ही रहे है।
मोहन लाल डांगी ने बताया कि उनकी टीम का तैयार किया हुआ विवेकानंद पर आधारित कठपुतलियों का नाटक का रूपांतरण भारत में 400-500 और विदेश में 20-30 बार प्रस्तुत हो चुका हैं। यही नहीं, यह नाटक इन्होंने संसद भवन में और किरन खेर के सामने भी प्रदर्शित कर रखा है।
कठपुतली बनाने के लिए जो लकड़ियां काम आती है वो अगुसा, सागवान, अडूसा और आम आदि है। कठपुतली बनाने के लिए सबसे पहले लकड़ियों पर नक्काशी कर के उन्हें कटपुतलियों का रूप दिया जाता हैं, फिर उन पर रंग करके उन्हे वस्त्र पहनाए जाते है। उन्होंने बताया की एक कठपुतली को पूरा बनने में 4-5 दिन लगते हैं।
भगवती माली ने बताया की कठपुतली सिर्फ एक मनोरंजन का साधन नही बल्कि सामाजिक संदेश भी देता हैं। इन कठपुतलियों से इन्हे नाट्य रूपांतरण करने में एक साल लग जाता हैं और राजस्थान की ये कला सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय हैं।