नवरात्रि के चौथे दिन देवी के चौथे स्वरूप मां कूष्मांडा की पूजा होती है। देवी कूष्मांडा आदिशक्ति का वह स्वरूप है जिनकी मंद मुस्कान से इस सृष्टि ने सांस लेना आरंभ किया, यानी इस सृष्टि का आरंभ किया।
देवी कूष्मांडा का निवास स्थान सूर्यमंडल के बीच में माना जाता है। देवी का तेज ही इस संसार को तेज बल और प्रकाश प्रदान करता है। देवी कूष्मांडा मूल प्रकृति और आदिशक्ति हैं। जब सृष्टि में चारों तरफ अंधकार फैला था।
उस समय देवी ने जगत की उत्पत्ति की इच्छा से मंद मुस्कान किया इस सृष्टि में अंधकार का नाश और सृष्टि में प्रकाश फैल गया। कहते हैं कि देवी के इस तेजोमय रूप की जो भक्त श्रद्धा भाव से भक्ति करते हैं और नवरात्रि के चौथे दिन इनका ध्यान करते हुए पूजन करते हैं उनके लिए इस संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता है।
माता अपने भक्त की हर चाहत को पूरी करती हैं और भोग एवं मोक्ष प्रदान करती हैं।
बेदला माताजी का मंदिर
उदयपुर शहर से सटे बेदला गांव में एक अनोखा मंदिर है, जिसे बेदला माता मंदिर के नाम से जाना जाता हैं। इतिहास के मुताबिक, अति प्राचीन इस मंदिर का जीर्णोंद्धार महाराणा फतह सिंह ने कराया था।
बेदला तत्कालीन मेवाड़ राज्य का ठिकाना था और यहां रहने वाले ठिकानेदारों की कुलदेवी बेदला माता है। बेदला माता मंदिर जाने के लिए एक पहाड़ी को रास्ता काटकर बनाया गया है। लोग मानते हैं कि जो भी व्यक्ति इस पहाड़ी के बीच से होकर गुजरता है, वह उसके लिए सुखदायी साबित होता है।
कहा जाता है कि यही रास्ता माता के मंदिर का दरवाजा था। आठवीं सदी के इस अनोखे मंदिर में मन्नत पूरी होने पर लोग बकरे तथा मुर्गे छोड़कर जाते हैं। यह परंपरा अब भी जारी है।
देवी माता के मंदिरों में हर जगह अष्टमी को भक्तों की भीड़ रहती है, लेकिन यहां मामला जुदा है। इस मंदिर में अष्टमी की बजाय नवमीं को भक्तों की भीड़ जुटती है।
कई दशकों से जारी इस परंपरा को लेकर बुजुर्ग भी नहीं बता पाते, लेकिन वह कहते हैं कि मंदिर में बड़ी संख्या में रोगी आते हैं और अपने स्वास्थ्य होने की मन्नत मांगते हैं। स्वस्थ्य होने पर वह बकरा या मुर्गा चढ़ाते हैं।
बेदला माता जिसे गांव के लोग सुखदेवी माता भी कहते हैं। उनको लेकर गांव के लोग ही नहीं, बल्कि शहरी लोगों में बड़ी मान्यता है। वह नया वाहन खरीदने के बाद सुखदेवी माता के मंदिर अवश्य ले जाते हैं। वहां पूजा-अर्चना करते हैं।
पक्षाघात होने पर क्षेत्र के लोग रोगी को यहां मंदिर में लाते हैं, उनका मानना है कि यहां आने के बाद उन्हें लाभ होना शुरू होने लगता है। निःसंतान दंपतित भी यहां आते हैं और झोली भरने की मन्नत पूरी होने पर मंदिर प्रांगण में बने पेड़ों पर झूला टांगकर जाते हैं।
मंदिर से बाहर आते हुए पीछे मुड़कर नहीं देखते इस मंदिर में देवी मां के दर्शन करने के बाद लौटते समय कोई भक्त पीछे मुड़कर नहीं देखता।
मंदिर में इस बारे में साफ इंगित है। माना जाता है कि यहां भूतों का साया भी स्वत: ही हट जाता है।